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Monday, 7 April 2014

कुरआन की चौबीस आयतें part 3 (jawabaat)


पैम्फलेट
में लिखी 11वें क्रम की आयत है : 11- ' और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा किसे
उसके रब की आयातों के द्वारा चेताया जायेऔर फिर वह उनसे मुंह
फेर ले । निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है ।"
-
सूरा 32, आयत- 22 इस आयत में भी पहले लिखी आयत की ही तरह अल्लाह उन
लोगों को नरक का दण्ड देगा जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते । यह परलोक
की बातें है अत: इस आयत
का सम्बन्ध इस लोक में लड़ाई- झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से जोड़ना शरारत
पूर्ण हरकत है। पैम्फलेट में लिखी 12वें क्रम की  आयत है : 12 - " अल्लाह
ने तुमसे बहुत सी गनिमतों ' ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ
आएँगी,"
-
सूरा 48 ,आयत-20
पहले में यह बता दूं कि ग़नीमत का अर्थ लूट नहीं बल्कि शत्रु की क़ब्ज़ा
की गई संपत्ति होता है ।


उस समय मुसलमानों के अस्तित्व को मिटने के लिए
हमले होते या हमले की तैयारी हो रही होती । काफ़िर और उनके सहयोगी यहूदी व
ईसाई धन से शक्तिशाली थे । ऐसे शक्तिशाली दुश्मनों से बचाव के लिए उनके
विरुद्ध मुसलमनों का हौसला बढ़ाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से वायदा हुआ

यह युद्ध के नियमों के अनुसार जायज़ है । आज शत्रु की क़ब्ज़ा की गई
संपत्ति विजेता की होती है ।
अत: इसे झगड़ा कराने वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है । पैम्फलेट में
लिखी 13वें क्रम की  आयत है : 13 - " तो जो कुछ ग़नीमत ' ( लूट ) का
माल तुमने हासिल किया है उसे हलाल व पाक समझ कर खाओ ,"
सूरा 8 , आयत -69 बारहवें क्रम की आयत में दिए हुए तर्क के अनुसार इस
आयात का भी सम्बन्ध आत्मरक्षा के लिए किये जाने वाले युद्ध में मिली चल
संपत्ति से हैयुद्ध में हौसला बनाये रखने से है । इसे भी झगड़ा बढ़ाने
वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है । पैम्फलेट में लिखी 14वें क्रम की आयत
है :  14 - " हे नबी ! काफ़िरों 'और मुनाफ़िकों के साथ जिहाद करो ,
और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना
जहन्नम हैऔर बुरी जगह है जहाँ पहुंचे ।"
जैसे कि हम ऊपर बता चुके हैं कि काफ़िर कुरैश अन्यायी व अत्याचारी थे और
मुनाफ़िक़ ( यानि कपट करने वाले कपटचारी
मुसलमानों के हमदर्द बन कर आतेउनकी जासूसी करते और काफ़िर कुरैश को
सारी सूचना पहुंचाते तथा काफ़िरों के साथ मिल कर अल्लाह के रसूल ( सल्ल०
कि खिल्ली उड़ाते और मुसलमानों के खिलाफ़ साजिश रचते । ऐसे अधर्मियों के
विरुद्ध लड़ना अधर्म को समाप्त कर धर्म की स्थापना करना है । ऐसे ही
अत्याचारी कौरवों के लिए योगेश्वर श्री कृष्णन ने कहा था:
अथ चेत् त्वामिमं धमर्य संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्य्सी ।।
-
गीता अध्याय श्लोक-33
हे अर्जुन ! किन्तु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को न करेगा तो अपने धर्म
और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ
यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धं ।
अध्याय 11 , श्लोक-33 इसलिए तू उठ ! शत्रुओं पर विजय प्राप्त करयश को
प्राप्त कर धन-धान्य से संपन्न राज्य का भोग कर । पोस्टर या छापने व
बाँटने वाले श्रीमद् भगवद् गीता के इस आदेश को क्या झगड़ा- लड़ाई कराने
वाला कहेंगे यदि नहींतो इन्हीं परिस्थतियों में आत्मरक्षा के लिए
अत्याचारियों के विरुद्ध जिहाद ( यानि आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए
युद्ध ) करने का फ़रमान देने वाली आयत को झगड़ा कराने वाली कैसे कह सकते
हैंक्या यह अन्यायपूर्ण निति नहीं है आखिर किस उद्देश्य से यह सब
किया जा रहा है पैम्फलेट में लिखी 15वें क्रम की आयत है : 15 - " तो
अवश्य हम कुफ्र करने
वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे
और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वो करते थे ।"
-
सूरा 41 , आयत-27
उस आयत को लिखा जिसमें अल्लाह काफ़िरों को दण्डित करेगालेकिन यह दण्ड
क्यों मिलेगा इसकी वजह इस आयत के ठक पहले वाली आयत ( जिस की यह पूरक
आयत है ) में हैउसे ये छिपा गए । अब इन आयतों को हम एक साथ दे रहे हैं
। पाठक स्वयं देखें कि इस्लाम को बदनाम करने कि साजिश कैसे रची गई है ? :
और काफ़िर कहने लगे कि इस कुरआन को सुना ही न करो और (
जब पढने लगें तो ) शोर मचा दिया करो ताकि ग़ालिब रहो । ( 26 )
तो अवश्य हम कुफ्र करने वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे
और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे । ( 27 )
कुरआन पारा 24 , सूरा 41, आयत- 26 -27 अब यदि कोई अपनी धार्मिक
पुस्तक का पाठ करने लगे या नमाज़ पढने लगेतो उस समय बाधा पहुँचाने के
लिए शोर मचा देना क्या दुष्टतापूर्ण कर्म नहीं हैइस बुरे कर्म कि सज़ा
देने के लिये ईश्वर कहता हैतो क्या वह झगड़ा कराता है?
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि पाप कर्मों का फल देने वाली इस आयत में झगड़ा
कराना कैसे दिखाई दिया पैम्फलेट में लिखी 16वें क्रम की आयत है : 16 -
यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( 'जहन्नमकी ) आग । इसी में उनका
सदा घर है इसके बदले में कि हमारी आयातों का इंकार करते थे ।"
-
सूरा 41 , आयत- 28
यह आयत ऊपर पन्द्रहवें क्रम कि आयात की पूरक है जिसमें काफ़िरों को मरने
के बाद नरक का दण्ड हैजो परलोक की बात है इसका इस लोक में लड़ाई- झगड़ा
कराने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध नहीं है । पैम्फलेट में लिखी 17वें
क्रम की आयत है : 17- " नि:संदेह अल्लाह ने ईमानवालों ( मुसलमानों )
से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये '
जन्नतहैवे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी हैं और मारे भी
जाते हैं ।"
-
सूरा 9 , आयत-11
गीता में है ;
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्स्ये महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ।। -गीता अध्याय श्लोक-37
या ( तो तू युद्ध में ) मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा ( अथवा ) जीत
कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इसलिए हे अर्जुन ! ( तू ) युद्ध के लिए
निश्चय कर क्र खड़ा हो जा ।
गीता के यह आदेश लड़ाई- झगड़ा बढ़ने वाला भी नहीं है यह अधर्म को बढ़ने
वाला भी नहीं है ,
क्योंकि यह तो अन्यायियों व अत्याचारियों का विनाश कर धर्म की स्थापना के
लिए किये जाने वाले युद्ध के लिए है ।
इन्हीं परिस्थितियों में अन्यायी अत्याचारीमुशरिक काफ़िरों को समाप्त
करने के लिए ठीक वैसा ही अल्लाह ( यानि परमेश्वर ) का फरमान भी सत्य धर्म
की स्थापना के लिये है आत्मरक्षा के लिए है। फिर इसे ही झगड़ा करने
वाला क्यों कहा गया ऐसा कहने वाले क्या अन्यायपूर्ण निति नहीं रखते ?
जनता को ऐसे लोगों से सावधान हो जाना चाहिए । पैम्फलेट में लिखी 18वें
क्रम की आयत है : 18 - " अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम )
पुरुषों और मुनाफ़िक स्त्रियों और काफिरों से जहन्नुम की आग का
वादा किया है जिसमें वह सदा रहेंगे । यही उन्हें बस है । अल्लाह ने
उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना है।"
-
कुरआनपारा 10 ,सूरा 9 ,आयात-68
सूरा की इस 68वीं आयत के पहले वाली 67वीं आयत को पढने के बाद इस आयत को
पढ़ेंपहले वाली 67वीं आयत है । मुनाफ़िक मर्द और मुनाफ़िक़ औरतें एक
दुसरे के हमजिंस ( यानि एक ही तरह के ) हैंकि बुरे काम करने को कहते और
नेक कामों से मना करते और ( खर्च करने में ) हाथ बंद किये रहते हैं,
उन्होंने ख़ुदा को भुला दिया तो खुदा ने भी उनको भुला दिया । बेशक
मुनाफ़िक न- फ़रमान है ।
-
कुरआनपारा10 , सूरा9 , आयत67- स्पष्ट है मुनाफ़िक़ ) कपटचारी ( मर्द
और औरतें लोगों को अच्छे कामों से रोकते और बुरे काम करने को कहते ।
अच्छे काम के लिए खोटा सिक्का भी न देते । खुदा ) यानि परमीश्वर ( को कभी
याद न करते उसकी अवज्ञा करते और खुराफ़ात में लगे रहते । ऐसे पापियों
को मरने के बाद क़ियामत के दिन जहन्नम ) यानि नरक ( की सज़ा की चेतावनी
देने वाली अल्लाह की यह आयात बुरे पर अच्छाई की जीत के लिए उतरी न की
लड़ाई-झगड़ा करने के लिए । पैम्फलेट में लिखी19 वें क्रम की आयत है : 19
- " 
हे नबी! ईमान वालों ) मुसलमानों ( को लड़ाई पर उभारो । यदि तुम
20 
जमे रहने वाले होंगे तो वे200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे और यदि
तुम में 100 हों तो1000 ' काफ़िरों पर भारी रहेंगे क्योंकि वे ऐसे
लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते ।
-
सूरा8 , आयत65- मक्का के अत्याचारी क़ुरैश व अल्लाह के रसूल ) सल्ल० (
के बीच होने वाले युद्ध में क़ुरैश की संख्या अधिक होती और सत्य के रक्षक
मुसलमानों की कम । ऐसी हालात में मुसलमानों का हौसला बढ़ाने व उन्हें
युद्ध में जमाये रखने के लिए अल्लाह की
ओर से यह आयत उतरी । यह युद्ध अत्याचारी व आक्रमणकारी काफ़िरों से था न
कि सभी काफ़िरों या ग़ैर- मुसलमानों से । अत :यह आयात अन्य
धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश नहीं देती । इसके प्रमाण में एक
आयत दे रहे हैं ।:
जिन लोगों ( यानि काफ़िरों ) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और
तुम को तुम्हारे घरों से निकालाउनके साथ भलाई और इंसाफ़ का सुलूक करने
से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता । ख़ुदा इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है

-
कुरआनपारा 28 , सूरा 60 , आयत-पैम्फलेट में लिखी 20वें क्रम की आयत
है : 20 - " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम 'यहूदियोंऔर ईसाईयों'
को मित्रं न बनाओ । ये आपस में एक दुसरे के मित्र हैं । और जो कोई तुम
में से उनको मित्र बनायेगा वह उन्हीं में से होगा । नि:संदेह अल्लाह
ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखता ।"
-
सूरा 5 , आयत-51
यहूदी और ईसाई ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ
पीछे क़ुरैश को मदद करते और कहते मुहम्मद से लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं ।
उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य
मुसलमानों को सावधान करना थान कि झगड़ा करना । इसके प्रमाण में कुरआन
की एक आयत दे रहे हैं-
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है ,
जिन्होनें तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से
निकाला और तुम्हारे निकालने में औरों कि मदद  की
तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगेवही ज़ालिम हैं । "
कुरआनपारा 28 , सूरा 60 , आयत-9
पैम्फलेट में लिखी 21 वें क्रम की आयत है : 21 - " किताब वाले जो न
अल्लाह पर 'ईमानलाते हैं न अंतिम दिन परन उसे 'हरामकरते हैं जिसे
अल्लाह और उसके रसूल ने हराम ठहराया हैऔर न सच्चे 'दीनको अपना
'
दीनबनाते हैंउनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिष्ठित ( अपमानित ) होकर
अपने हाथों से जीज़यादेने लगें । "
इस्लाम के अनुसा तौरातज़ूबूर ( Old Testament ) व इंजील ( New
Testament ) 
और कुरआन मजीद अल्लाह की भेजी हुई किताबें हैंइसलिए इन
किताबों पर अलग-अलग ईमान वाले क्रमश: यहूदीईसाई और मुस्लमान किताब
वाले या 'अहले किताबकहलाए । यहाँ इस आयत में किताब वाले से मतलब
यहूदियों और ईसाईयों से है ।
ईश्वरीय पुस्तकें रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा
लगता है की इनमें यहूदियों और ईसाईयों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने के
लिए लड़ाई है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इस्लाम में किसी भी
प्रकार की ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है ।
कुरआन में अल्लाह मना करता है की किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाये । देखिये :और अपने किए के लिए प्रायश्चित कर सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगे

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