।" हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित
एवं प्रकाशित । ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था
। जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा,
दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन
मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल
हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर
छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए
के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235ए, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस
स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
एवं प्रकाशित । ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था
। जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा,
दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन
मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल
हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर
छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए
के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235ए, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस
स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न
वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?
वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?
पैम्फलेट में लिखी
पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो "
मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और
हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम
करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा
क्षमाशील और दया करने वाला है ।"-सूरा 9 आयत-5 इस आयत के सन्दर्भ में-
जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और
मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के
पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य- धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव
कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने
नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की
साजिश रचते रहते ।
पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो "
मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और
हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम
करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा
क्षमाशील और दया करने वाला है ।"-सूरा 9 आयत-5 इस आयत के सन्दर्भ में-
जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और
मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के
पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य- धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव
कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने
नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की
साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप (
सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए ।
लेकिन मुनाफिकों ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी ।
क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न
देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल०
) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास
पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के
पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने
कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से
पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के
सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।
उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून- ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० )
को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान (
रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव डाले अल्लाह के रसूल (
सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह
सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये
तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब
युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद (
सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० )
का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान (
रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।
[ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं
लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।
[ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे
हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ
जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।
[ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या
मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।
[ समझौते में चौथी शर्त थी- कि
:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला
करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता
10 साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।
हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के
दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित
हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक क़बीले ने जो मक्का के
क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया
। इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और
इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना
झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़
डाला ।
अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि
स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से
सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।
इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए
हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर
मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है
उन को सूरा
9 की यह आयत सुना दी-
( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन
तुम ने अह्द (
यानि समझौता ) कर रखा था, बे- ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम
को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा
करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है
कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) ।
पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और
ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और (
ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने
वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,
अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट
चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार
महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है ।
"समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना
मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो
मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च
न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ
तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो
और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके
साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता
है ।"
- कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4
से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें
युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें
ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने
बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता । अत्याचारियों और
अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए
सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है ।
इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों
और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता
का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने
वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के
अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-
बन्धु क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों
लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके
मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित
साज़िश नहीं है? पैम्फलेट में लिखी दुसरे क्रम की आयत है: 2 - " हे
'ईमान' लाने वालों ! 'मुशरिकों' ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं ।"
- सूरा 9 , आयत- 28
लगातार झगड़ा-फ़साद, अन्याय- अत्याचार करने वाले अन्यायी , अत्याचारी
अपवित्र नहीं, तो और क्या हैं ? पैम्फलेट में लिखी तीसरी क्रम की आयत है:
3 - " नि:संदेह ' काफ़िर' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।"
- सूरा 4 , आयत-101
वास्तव में जान-बूझ कर इस आयत का एक अंश ही दिया गया है । पूरी आयात
ध्यान से पढ़ें- " और जब तुम सफ़र को जाओ, तो तुम पर कुछ गुनाह नहीं कि
नमाज़ को कम पढो, बशर्ते कि तुमको डर हो कि काफ़िर लोग तुमको ईज़ा ( तकलीफ़
) देंगे । बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।"
-कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-101
इस पूरी आयात से स्पष्ट है कि मक्का व आस-पास के काफ़िर जो मुसलमानों को
सदैव नुक़सान पहुँचाना चाहते थे ( देखिए हज़रत मुहम्मद सल्ल० की जीवनी )
। ऐसे दुश्मन काफ़िरों से सावधान रहने के लिए ही इस 101 वीं आयात में कहा
गया है :- 'कि नि:संदेह ' काफ़िर ' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।'
इससे अगली 102 वीं आयात से स्पष्ट हो जाता है जिसमें अल्लाह ने और सावधान
रहने का फ़रमान दिया है कि :
और ( ऐ पैग़म्बर ! ) जब तुम उन ( मुजाहिदों के लश्कर ) में हो और उनके
नमाज़ पढ़ाने लगो, तो चाहिए कि एक जमाअत तुम्हारे साथ हथियारों से लैस
होकर खड़ी रहे, जब वे सज्दा कर चुकें, तो परे हो जाएँ , फिर दूसरी जमाअत
, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी ( उनकी जगह आये और होशियार और हथियारों से लैस
होकर ) तुम्हारे साथ नमाज़ अदा करे । काफ़िर इस घात में हैं कि तुम ज़रा
अपने हथियारों और अपने सामानों से गाफ़िल हो जाओ, तो तुम पर एक
बारगी हमला कर दें ।
-कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-102 पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) कि जीवनी व
ऊपर लिखे तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के लिए काफ़िरों से अपनी व
अपने धर्म कि रक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था । अत: इस आयत में
झगड़ा करने, घृणा फैलाने या कपट करने जैसी कोई बात नहीं है, जैसा कि
पैम्फलेट में लिखा गया है । जबकि जान- बूझ कर कपटपूर्ण ढंग से आयात का
मतलब बदलने के लिये आयत के केवल एक अंश को लिख कर और शेष छिपा कर जनता को
वरगालाने , घृणा फैलाने व झगड़ा करने का कार्य तो वे लोग कर रहे हैं, जो
इसे छापने व पूरे देश में बाँटने का कार्य कर रहे हैं ।जनता ऐसे लोगों से
सावधान रहे । में लिखी चौथे क्रम कि आयत है : 4 - "हे 'ईमान' लेन वालों
! ( मुसलमानों !) उन 'काफ़िरों' से लड़ो जो तुम्हार आस-पास हैं, और
चाहिये कि वे तुममें सख्ती पायें ।"
-सूरा 9 , आयत-123
पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) कि जीवनी व ऊपर लिखे जा चुके तथ्यों से
स्पष्ट है कि मुसलमानों को काफ़िरों से अपनी व अपने धर्म कि रक्षा करने
के लिये ऐसा करना आवश्यक था । इसलिए इस आत्मरक्षा वाली आयात को झगड़ा
करने वाली नहीं कहा जा सकता । पैम्फलेट में लिखी 5वें क्रम कि आयत है : 5
- ; जिन लोगों ने हमारी ' आयतों ' का इंकार किया , उन्हें हम जल्द ही
अग्नि में झोंक देंगे । जब उनकी खालें पक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी
खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें । नि:संदेह अल्लाह
प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है । "
-सूरा 5 , आयत-56
यह तो धर्म विरुद्ध जाने पर दोज़ख़ ( यानि नरक ) में दिया जाने वाला दंड
है । सभी धर्मों में उस धर्म की मान्यताओं के अनुसार चलने पर स्वर्ग का
अकल्पनीय सुख और विरुद्ध जाने पर नरक का भयानक दंड है । फिर कुरआन में
बताये गए नरक ( यानि दोज़ख़ ) के दंड के लिये एतराज़ क्यों? इस मामले में
इन पर्चा छापने व बाँटने वालों को हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है?
या फिर क्या इन लोगों को नरक में मानवाधिकारों की चिंता सताने लगी है ?
पैम्फलेट में लिखी 6वें क्रम की आयत है : 6 - '"हे 'ईमान' लेन वालों ! (
मुसलमानों ) अपने बापों और भाइयों को मित्र न बनाओ यदि वे ' ईमान ' की
अपेक्षा ' कुफ्र' को पसंद करें । और तुम में जो कोई उनसे मित्रता का नाता
जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।"
-सूरा 9 ' आयत-23
पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) जब एकेश्वरवाद का सन्देश दे रहे थे, तब कोई
व्यक्ति अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) द्वारा तौहीद ( यानि एकेश्वरवाद ) के
पैग़ाम पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाकर मुसलमान बनता और फिर अपने मां-बाप,
बहन-भाई के पास जाता, तो वे एकेश्वरवाद से उसका विश्वास ख़त्म कराके फिर
से बहुईश्वरवादी बना देते । इस कारण एकेश्वरवाद की रक्षा के लिये अल्लाह
ने यह
आयात उतारी जिससे एकेश्वरवाद के सत्य को दबाया न जा सके । अत: सत्य की
रक्षा के लिये आई इस आयत को झगड़ा करने वाली या घृणा फैलाने वाली आयत
कैसे कहा जा सकता है ? जो ऐसा कहते हैं वे अज्ञानी हैं । पैम्फलेट में
लिखी 7वें क्रम की आयत है : 7 - " अल्लाह ' काफ़िरों' लोगों को मार्ग
नहीं दिखता ।"
-सूरा 9 , आयत-37
आयात का मतलब बदलने के लिये इस आयत को भी जान-बूझ कर पूरा नहीं दिया गया,
इसलिए इसका सही मकसद समझ में नहीं आता । इसे समझने के लिये हम आयात को
पूरा दे रहे हैं ।:
अम्न के किसी महीने को हटाकर आगे-पीछे कर देना कुफ्र में बढ़ती करता है ।
इस से काफ़िर गुमराही में पड़े रहते हैं । एक साल तो उसको हलाल समझ लेते
हैं और दूसरे साल हराम, ताकि अदब के महीनों की, जो खुदा ने मुक़र्रर किये
हैं, गिनती पूरी कर लें और जो खुदा ने मना किया है , उसको जायज़ कर लें ।
उनके बुरे अमल उन को भले दिखाई देते हैं और अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्ग
नहीं दिखता ।
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 37
अदब या अम्न ( यानि शांति ) के चार महीने होते हैं, वे हैं - ज़ीकादा,
ज़िल्हिज्जा, मुहर्रम,और रजब । इन चार महीनों में लड़ाई- झगड़ा नहीं किया
जाता । काफ़िर कुरैश इन महीनों में से किसी महीने को अपनी ज़रुरत के हिसाब
से जान-बूझ कर आगे- पीछे कर लड़ाई-झगड़ा करने के लिये मान्यता का उल्लंघन
किया करते थे । अनजाने में भटके हुए को मार्ग दिखाया जा सकता है , लेकिन
जानबूझ कर भटके हुए को मार्ग इश्वर भी नहीं दिखाता । इसी सन्दर्भ में यह
आयात उतरी । इस आयत का लड़ाई- झगड़ा करने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध
नहीं है । पैम्फलेट में लिखी 8वें क्रम की आयत है : 8 - " हे 'ईमान' लाने
वालों ! ------------ और 'काफ़िरों' को अपना मित्र न बनाओ । अल्लाह से
डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो । "
यह आयात भी अधूरी दी गयी है ।
आयात के बीच का अंश जान बूझ कर छिपाने की शरारत की गयी है । पूरी आयात है -
ऐ ईमान लाने वालों ! जिन लोगों को तुमसे पहले किताबें दी गयी थीं, उन को
और काफ़िरों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है,
मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।
-कुरआन, पारा 6 , सूरा 5 , आयत-57 आयत को पढ़ने से साफ़
है कि काफ़िर क़ुरैश तथा उन के सहयोगी यहूदी और ईसाई जो मुसलमानों के धर्म
की हंसी उड़ाया करते थे , उन को दोस्त न बनाने के लिए यह आयात आई । ये
लड़ाई-झगड़े के लिए उकसाने वाली या घृणा फैलाने वाली कहाँ से
है ? इसके विपरीत पाठक स्वयं देखें की पैम्फलेट में ' जिन्होंने तुम्हारे
धर्म को हंसी और खेल बना रखा है' को जानबूझ कर छिपा कर उसका मतलब पूरी
तरह बदल देने की साजिश करने वाले क्या चाहते हैं? पैम्फलेट में लिखी 9वें
क्रम कि आयत है: 9 -" फिटकारे हुए ( ग़ैर मुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये
जायेंगे पकडे जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे ।"
-सूरा 33 ,आयत-61
इस आयात का सही मतलब तभी पता चलता है जब इसके पहली वाली 60वीं आयत को जोड़ा जाये ।
अगर मुनाफ़िक ( यानि कपटचारी ) और वे बुरे लोग जिनके दिलों में मर्ज़ है
और जो mado ( के शहर ) में बुरी- बुरी ख़बरें उड़ाया करते हैं, ( अपने
किरदार से ) रुकेंगे नहीं, तो हम तुम को उनके पीछे लगा देंगे , फिर वहां
तुम्हारे पड़ोस में न रह सकेंगे, मगर थोड़े दिन । ( 60 )
( वह भी फिटकारे हुए ) जहाँ पाये गए, पकडे गए और जान से मार डाले गए । ( 61 )
- कुरआन , पारा 22 , सूरा 33 , आयत- 60 -61
उस समय मदीना शहर जहाँ अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) का निवास था, कुरैश के
हमले का सदैव अंदेशा रहता था । युद्ध जैसे माहौल में कुछ मुनाफिक ( यानि
कपटचारी ) और यहूदी तथा ईसाई जो मुसलामनों के पास भी आते और काफ़िर क़ुरैश
से भी मिलते रहते और अफहवाहें उड़ाया करते थे। युद्ध जैसे माहौल में जहाँ
हमले का सदैव अंदेशा हो, अफवाह उड़ाने वाले जासूस कितने ख़तरनाक हो सकते
हैं, अंदाज़ा किया जा सकता है । आज क़ानून में भी ऐसे लोगों की सज़ा मौत
हो सकती है । वास्तव में शांति की स्थापना के लिए उनको यही दण्ड उचित है
। यह न्यायसंगत है । अत: इस आयत को झगड़ा करने वाली कहना दुर्भाग्यपूर्ण
है । पैम्फलेट में लिखी 10वें क्रम की आयत है : 10 - " ( कहा जायगा ) :
निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का ईधन
हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।
-सूरा 21 , आयात-98
इस्लाम एकेश्वरवादी मज़हब है, जिसके अनुसार एक इश्वर ' अल्लाह ' के अलावा
किसी दूसरे को पूजना सबसे बड़ा पाप है । इस आयात में इसी पाप के लिए
अल्लाह मरने के बाद जहन्नम ( यानि नरक ) का दण्ड देगा ।
पैम्फलेट में लिखी पांचवें क्रम की आयत में हम इस विषय में लिख चुके हैं
अत: इस आयत को भी झगड़ा करने वाली आयत कहना न्यायसंगत नहीं है ।
next page
previous page
मुसलमानों ) अपने बापों और भाइयों को मित्र न बनाओ यदि वे ' ईमान ' की
अपेक्षा ' कुफ्र' को पसंद करें । और तुम में जो कोई उनसे मित्रता का नाता
जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।"
-सूरा 9 ' आयत-23
पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) जब एकेश्वरवाद का सन्देश दे रहे थे, तब कोई
व्यक्ति अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) द्वारा तौहीद ( यानि एकेश्वरवाद ) के
पैग़ाम पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाकर मुसलमान बनता और फिर अपने मां-बाप,
बहन-भाई के पास जाता, तो वे एकेश्वरवाद से उसका विश्वास ख़त्म कराके फिर
से बहुईश्वरवादी बना देते । इस कारण एकेश्वरवाद की रक्षा के लिये अल्लाह
ने यह
आयात उतारी जिससे एकेश्वरवाद के सत्य को दबाया न जा सके । अत: सत्य की
रक्षा के लिये आई इस आयत को झगड़ा करने वाली या घृणा फैलाने वाली आयत
कैसे कहा जा सकता है ? जो ऐसा कहते हैं वे अज्ञानी हैं । पैम्फलेट में
लिखी 7वें क्रम की आयत है : 7 - " अल्लाह ' काफ़िरों' लोगों को मार्ग
नहीं दिखता ।"
-सूरा 9 , आयत-37
आयात का मतलब बदलने के लिये इस आयत को भी जान-बूझ कर पूरा नहीं दिया गया,
इसलिए इसका सही मकसद समझ में नहीं आता । इसे समझने के लिये हम आयात को
पूरा दे रहे हैं ।:
अम्न के किसी महीने को हटाकर आगे-पीछे कर देना कुफ्र में बढ़ती करता है ।
इस से काफ़िर गुमराही में पड़े रहते हैं । एक साल तो उसको हलाल समझ लेते
हैं और दूसरे साल हराम, ताकि अदब के महीनों की, जो खुदा ने मुक़र्रर किये
हैं, गिनती पूरी कर लें और जो खुदा ने मना किया है , उसको जायज़ कर लें ।
उनके बुरे अमल उन को भले दिखाई देते हैं और अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्ग
नहीं दिखता ।
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 37
अदब या अम्न ( यानि शांति ) के चार महीने होते हैं, वे हैं - ज़ीकादा,
ज़िल्हिज्जा, मुहर्रम,और रजब । इन चार महीनों में लड़ाई- झगड़ा नहीं किया
जाता । काफ़िर कुरैश इन महीनों में से किसी महीने को अपनी ज़रुरत के हिसाब
से जान-बूझ कर आगे- पीछे कर लड़ाई-झगड़ा करने के लिये मान्यता का उल्लंघन
किया करते थे । अनजाने में भटके हुए को मार्ग दिखाया जा सकता है , लेकिन
जानबूझ कर भटके हुए को मार्ग इश्वर भी नहीं दिखाता । इसी सन्दर्भ में यह
आयात उतरी । इस आयत का लड़ाई- झगड़ा करने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध
नहीं है । पैम्फलेट में लिखी 8वें क्रम की आयत है : 8 - " हे 'ईमान' लाने
वालों ! ------------ और 'काफ़िरों' को अपना मित्र न बनाओ । अल्लाह से
डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो । "
यह आयात भी अधूरी दी गयी है ।
आयात के बीच का अंश जान बूझ कर छिपाने की शरारत की गयी है । पूरी आयात है -
ऐ ईमान लाने वालों ! जिन लोगों को तुमसे पहले किताबें दी गयी थीं, उन को
और काफ़िरों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है,
मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।
-कुरआन, पारा 6 , सूरा 5 , आयत-57 आयत को पढ़ने से साफ़
है कि काफ़िर क़ुरैश तथा उन के सहयोगी यहूदी और ईसाई जो मुसलमानों के धर्म
की हंसी उड़ाया करते थे , उन को दोस्त न बनाने के लिए यह आयात आई । ये
लड़ाई-झगड़े के लिए उकसाने वाली या घृणा फैलाने वाली कहाँ से
है ? इसके विपरीत पाठक स्वयं देखें की पैम्फलेट में ' जिन्होंने तुम्हारे
धर्म को हंसी और खेल बना रखा है' को जानबूझ कर छिपा कर उसका मतलब पूरी
तरह बदल देने की साजिश करने वाले क्या चाहते हैं? पैम्फलेट में लिखी 9वें
क्रम कि आयत है: 9 -" फिटकारे हुए ( ग़ैर मुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये
जायेंगे पकडे जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे ।"
-सूरा 33 ,आयत-61
इस आयात का सही मतलब तभी पता चलता है जब इसके पहली वाली 60वीं आयत को जोड़ा जाये ।
अगर मुनाफ़िक ( यानि कपटचारी ) और वे बुरे लोग जिनके दिलों में मर्ज़ है
और जो mado ( के शहर ) में बुरी- बुरी ख़बरें उड़ाया करते हैं, ( अपने
किरदार से ) रुकेंगे नहीं, तो हम तुम को उनके पीछे लगा देंगे , फिर वहां
तुम्हारे पड़ोस में न रह सकेंगे, मगर थोड़े दिन । ( 60 )
( वह भी फिटकारे हुए ) जहाँ पाये गए, पकडे गए और जान से मार डाले गए । ( 61 )
- कुरआन , पारा 22 , सूरा 33 , आयत- 60 -61
उस समय मदीना शहर जहाँ अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) का निवास था, कुरैश के
हमले का सदैव अंदेशा रहता था । युद्ध जैसे माहौल में कुछ मुनाफिक ( यानि
कपटचारी ) और यहूदी तथा ईसाई जो मुसलामनों के पास भी आते और काफ़िर क़ुरैश
से भी मिलते रहते और अफहवाहें उड़ाया करते थे। युद्ध जैसे माहौल में जहाँ
हमले का सदैव अंदेशा हो, अफवाह उड़ाने वाले जासूस कितने ख़तरनाक हो सकते
हैं, अंदाज़ा किया जा सकता है । आज क़ानून में भी ऐसे लोगों की सज़ा मौत
हो सकती है । वास्तव में शांति की स्थापना के लिए उनको यही दण्ड उचित है
। यह न्यायसंगत है । अत: इस आयत को झगड़ा करने वाली कहना दुर्भाग्यपूर्ण
है । पैम्फलेट में लिखी 10वें क्रम की आयत है : 10 - " ( कहा जायगा ) :
निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का ईधन
हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।
-सूरा 21 , आयात-98
इस्लाम एकेश्वरवादी मज़हब है, जिसके अनुसार एक इश्वर ' अल्लाह ' के अलावा
किसी दूसरे को पूजना सबसे बड़ा पाप है । इस आयात में इसी पाप के लिए
अल्लाह मरने के बाद जहन्नम ( यानि नरक ) का दण्ड देगा ।
पैम्फलेट में लिखी पांचवें क्रम की आयत में हम इस विषय में लिख चुके हैं
अत: इस आयत को भी झगड़ा करने वाली आयत कहना न्यायसंगत नहीं है ।
next page
previous page
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete